NBPNEWS/ 2 सितम्बर/मोहला मानपुर
क्यों मनाते हैं पोरा त्यौहार, क्या खास है इस त्यौहार में, सर्व आदिवासी समाज अध्यक्ष संजीत ठाकुर बताते है, की हरेली के ठीक एक माह बाद भादो के अमावश्य में पोरा तिहार मनाया जाता है, धान के कटोरा छत्तीसगढ़ में पोरा त्यौहार को परम्परागत त्यौहार के रूप में मनाते आए हैं।
पोरा के दिन मिट्टी के खिलौने के माध्यम से छोटे बच्चों को अपनी- अपनी जिम्मेदारियों की पारपंरिक शिक्षा दी जाती है। बाज़ार से लड़कों के लिए मिट्टी के नांदिया बैल और लड़कियों के लिए मिट्टी की पोरा जाँता, चूल्हा, कड़ाही, बर्तन खरीदकर विधिवत पूजा कर बच्चों को खेलने के लिए दिया जाता है ताकि लड़कों को बैल, खेती बाड़ी की जिम्मेदारी का और लड़कियों को चूल्हा चौका घर सम्हालने की जिम्मेदारियों का बचपन से एहसास होता रहे अर्थात मिट्टी के खिलौने के माध्यम से बच्चों को पारम्परिक जिम्मेदारियों की शिक्षा देने का नाम पोरा त्यौहार है।
पोरा के दिन गाँव के बइगा (गायता) सभी देवालयों की साफ सफाई करता है और गाँव के कुछ प्रमुख लोगों के साथ देवालयों में मिट्टी का बैल, घोड़ा, या हाथी चढ़ाते है।
*पोरा अर्थात पोर फूटना *(पोटराना)*
धान में गर्भाधारण की अवस्था ,धान के पौधे पूर्ण रूप से परिपक्व होने पर गर्भाधारण (पोटराने) की खुशी में मनाया जाने वाला त्यौहार का नाम पोरा है। पोरा के समय से ही धान गर्भित अवस्था मे आता है,इसलिए पोरा के पहिली रात को गर्भही मनांते है और गर्भही पूजा करते हैं..!
पोरा त्यौहार के दिन सामर्थ्य के अनुसार सभी के यहॉ अनेको प्रकार के व्यंजन बनाते हैं, एक दूसरे को आमंत्रित करते हैं खाते और खिलाते है,आपसी सौहार्द्र एकता और भाई चारे का अनूठा मिसाल आज भी गांवों में त्यौहारों पर देखने को मिलता है..!
पोरा त्यौहार के दिन दोपहर बाद गांव के सभी बच्चे, किशोर किशोरियां, अपनी अपनी टोलियाँ बनाकर खूब खेलते है, महिलाएं सुवा, ददरिया, करमा की मनमोहक गीत गाती है,, सुवा, ददरिया, करमा गीत गाती महिलाओं की मधुर स्वर, पुरुषों के डंडा नाच में एक साथ टकराते डंडों की आवाज, रहिं चुकू - रहिं चुकू आवाज से गूंजता गेड़ियों का स्वर ऐसा लगता है कि मानो सारे जहां की खुशी गाँव में सिमट आई हो..!
पोरा के दूसरे दिन नारबोद मनाया जाता है, सावन के अमावश हरेली से लेकर भादो के अमावश पोरा तक प्रत्येक इतवार को इतवारी मनाते है, हरेली के दिन से एक माह तक गेंड़ी खेलने के बाद नारबोद के दिन उस गेंड़ी को गांव के सरहद में (गेंडी सरोना में ) सड़ाते है..!
इस दिन गाँव के सभी घर से प्रसादी के रूप में पोरा त्यौहार का बचा हुआ कुछ रोटी बड़ा के साथ परिवार में जितने सदस्य होते हैं खाट की रस्सी में उतना गठान बांध कर गेड़ी गांव के सरहद के पार सरोना में सड़ाते हैं और सुबह 5 बजे से बच्चों के गेड़ियों का झुंड सबसे पहले गाँव के 7 चक्कर लगाते है और गाँव के बइगा सभी गेंड़ी वालों के साथ गेंड़ी सड़ाने गेंड़ी सरोना लेजा के विधिवत पूजा के साथ गेंड़ी सड़ाते हैं, तथा साथ मे लाया हुआ गठान बांधे हुए खाट की रस्सी को भी वही सड़ा देते हैं , कहा जाता है कि खाट की रस्सी में प्रत्येक सदस्य के नाम से गांठ इसलिए बांधा जाता है कि उसके नाम से जो भी टोना टोटका, बीमारी हो तो रस्सी के गठान में बंधाकर रस्सी के साथ गाँव के सरहद के उस पार सड़ जाए।
गेंड़ी सड़ाकर लौटते वक्त जंगल से भेलवा पेड़ की डाली और जंगली कांटेदार दशमूल के पौधे लाते है, और बिना पैर धोए घर के मुख्य दरवाजा में खोंच देते हैं, तथा फसल के उस खेत मे गड़ाते हैं जहाँ लोगों का आना जाना रहता है, ये इसलिए किया जाता है कि इससे घर और खेत के फसल में किसी की नज़र, टोना, टोटका बुरी दृष्टि नहीं लगती, ऐसी मान्यता है कि जो भी टोना, टोटका या बुरी दृष्टि करेगा दशमूल के उल्टा कांटा आंख में चुभेगा, और भेलवा दंश उसके शरीर को फोड़ा फुंशी बना देगा।
यूँ तो हर क्षेत्र में अलग अलग ढंग से त्यौहार मनाते हैं लेकिन मेरा ये आलेख छत्तीसगढ़ के परिपेक्ष्य में है..!
छत्तीसगढ़ गोंड़वाना भूभाग का एक भाग है इसलिए पूर्णिमा और अमावश्य पर यहां की मिट्टी से जुड़ी जो भी पारम्परिक तिहार है वो सभी गोंडों की तिहार है।
टीप - गोंड़ किसी जाति या धर्म का नाम नही, प्रकृति के निर्माण के साथ उत्पन्न मानव प्रजाति के मूल को गोंड़ कहते हैं, जो प्रकृति के नियमों के अनुसार जीता है और प्रकृति के नियम का पालन करता है. !
दूसरा परिभाषा - गोंड़ न कोई जाति है न धर्म है गोंड़ प्रकृति के नियम के अनुसार जीवन जीने की पद्धति है।
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