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दावानल: एक पेड़ मां के नाम और जल, जंगल, जमीन की रक्षा के नाम पर दिखावा, हकीकत में जंगल जल रहा है।

NBPNEWS/17 मार्च 2025/ मोहला मानपुर अंबागढ़ चौकी (छत्तीसगढ़)। जंगल, जल और जमीन को लेकर हमेशा संघर्षरत आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र मोहला मानपुर अंबागढ़ चौकी में एक बड़ी विडंबना देखने को मिल रही है। यहां के स्थानीय लोग जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए निरंतर आंदोलन, धरना प्रदर्शन और रैली के माध्यम से सरकार को जागरूक करने का प्रयास करते हैं, लेकिन इसी क्षेत्र में जंगलों को आग के हवाले किया जा रहा है। यह आग प्राकृतिक नहीं, बल्कि इंसानी स्वार्थ और लालच का परिणाम है।  
**आग लगाने के प्रमुख कारण**  
हर साल गर्मी के मौसम में जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। हालांकि, यह आग प्राकृतिक रूप से नहीं लगती, बल्कि इसके पीछे कुछ गंभीर कारण होते हैं, जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर रहे हैं।  
 **1. महुआ बीनने के लिए जंगलों को जलाना**  
गर्मियों में महुआ फूलने का समय होता है और स्थानीय लोग इसे बीनकर अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करते हैं। लेकिन महुआ के फूल साफ जमीन पर गिरे, इसके लिए लोग जंगलों में आग लगा देते हैं, जिससे नीचे की झाड़ियां और सूखी पत्तियां जल जाती हैं। हालांकि, इस प्रक्रिया में छोटे पौधे, जीव-जंतु और मिट्टी के पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि आग लगने के उपरांत महुआ की क्वालिटी गिर जाती है जिसका आने पौने दाम मिल पाता है।
**2. शिकार के लिए आग का उपयोग**  
कुछ शिकारी गर्मी के दौरान पहाड़ियों और जंगलों में आग लगा देते हैं ताकि जंगली जानवर खुले में भागने के लिए मजबूर हो जाएं और उन्हें आसानी से पकड़ा जा सके। यह न सिर्फ अवैध है, बल्कि जंगल की जैव विविधता को भी भारी नुकसान पहुंचाता है।  
**3. वनभूमि पर कब्जा और खेती के लिए सफाई**  
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में कई लोग जंगल की भूमि पर अवैध कब्जा करने की कोशिश में रहते हैं। वे खेत तैयार करने के लिए जंगलों में आग लगाकर पेड़ों और झाड़ियों को नष्ट कर देते हैं। इस प्रक्रिया में हजारों एकड़ जंगल हर साल बर्बाद होता है, जिससे न केवल पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो रहा है, बल्कि वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास भी खत्म हो रहा है।  
**4 तेंदू पत्ता के लाभ लेने के लिए जंगल विनाश**
सरकार की योजना तेंदूपत्ता खरीदी 5500 रुपए मानक बोरा ली जाती है जिसके लिए ग्रामीण वनोपज तेंदू पत्ता का संग्रहण करने के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों में आग लगाते हैं। जबकि आग लगने के उपरांत तेंदू पत्ता में क्वालिटी की कमी आती है, जिसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
## **वन विभाग और प्रशासन की चुनौतियां**  
वन विभाग आग बुझाने के लिए निरंतर प्रयास कर रहा है, लेकिन जंगल की विशालता और सीमित संसाधनों के कारण वे हर जगह नहीं पहुंच पा रहे हैं। एक ही समय में कई जगह आग लगने से हालात और भी गंभीर हो जाते हैं।  

- **कम संसाधन और सीमित कर्मचारी**: जंगलों की सुरक्षा और आग बुझाने के लिए वन विभाग के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। कर्मचारियों की कमी के कारण वे हर जगह सक्रिय नहीं हो पाते।  
- **स्थानीय सहयोग की कमी**: कई बार लोग जंगल में आग लगने की सूचना भी वन विभाग को नहीं देते, जिससे आग पर काबू पाना और भी मुश्किल हो जाता है। और ग्रामीण भी आग देख कर आंख मूंद लेते है, अगर गांव स्तर पर आग बुझाने का काम करने से वनों को बचाया जा सकता है।

- **रोकथाम के प्रयास नाकाफी**: जंगलों में आग रोकने के लिए बनाए गए कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है।  

## **पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव**  
जंगलों में आग लगने से पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर गहरा असर पड़ता है।  

 **1. वर्षा में कमी और जल संकट**  
जंगल वर्षा के प्राकृतिक चक्र को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन जंगलों के लगातार जलने और कटने से वर्षा की मात्रा घट रही है, जिससे जल संकट की स्थिति बन रही है।  

### **2. जैव विविधता पर असर**  
आग लगने से जंगलों में रहने वाले जीव-जंतु मारे जाते हैं या विस्थापित हो जाते हैं। इससे जैव विविधता को भारी नुकसान होता है।  
### **3. मिट्टी की उर्वरता का नुकसान**  
जंगलों की आग से मिट्टी के आवश्यक पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे वहां की उपजाऊ क्षमता घट जाती है।  

### **4. ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ता तापमान**  
जंगल कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, लेकिन जब वे जलते हैं तो भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में फैलती हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या और गंभीर हो जाती है।  
## **जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष बनाम वास्तविकता**  
इस क्षेत्र में जल, जंगल और जमीन की रक्षा को लेकर कई आंदोलन हुए हैं। सरकार को ज्ञापन सौंपे गए, धरना-प्रदर्शन हुए और बड़े-बड़े संकल्प लिए गए, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है।  
- **एक पेड़ मां के नाम - फोटो खिंचवाने तक सीमित पर्यावरण प्रेमी**: हर साल सरकार पेड़ लगाने के लिए अलग अलग योजना निकलती है, पैसे भी लगती है, वर्ष 2024 में एक पेड़ मां के नाम सरकार ने मुहिम चलाई पेड़ लगाने को परन्तु उसकी रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाई नतीजन आज जंगल जल रहा है और सरकार मौन है। वही मानसून आने पर कई लोग पौधे लगाते हुए फोटो खिंचवाते हैं और सोशल मीडिया पर साझा करते हैं, लेकिन जब जंगल में आग लगती है तो वही लोग नदारद रहते हैं।  

- **वन संरक्षण कानूनों की अवहेलना**: सरकार की ओर से जंगलों की रक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका पालन नहीं हो रहा है।  
- **समाज की निष्क्रियता**: जंगलों को बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकार और वन विभाग की नहीं है, बल्कि स्थानीय समाज की भी है। लेकिन लोग केवल विशेष अवसरों पर पर्यावरण की रक्षा की बातें करते हैं, जबकि वास्तविक समय पर वे कोई योगदान नहीं देते।  
 **समाधान और आगे की राह**  
अगर जल, जंगल, जमीन को बचाना है, तो केवल सरकार या वन विभाग के भरोसे नहीं रहा जा सकता। इसके लिए स्थानीय स्तर पर प्रभावी कदम उठाने होंगे।  

**1. स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ाई जाए**  
स्थानीय समुदाय को जंगलों की रक्षा के लिए प्रेरित करना होगा। ग्राम समितियों के माध्यम से जंगलों की निगरानी करनी होगी और आग लगाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी होगी।  
**2. वन विभाग को मजबूत किया जाए**  
वन विभाग के कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जाए और उन्हें अत्याधुनिक संसाधन दिए जाएं ताकि वे जंगलों की आग से निपट सकें।  

 **3. कानूनी सख्ती**  
जो लोग जंगल में जानबूझकर आग लगाते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। सरकार को इस दिशा में सख्त कानून लागू करने की जरूरत है।  
### **4. वैकल्पिक साधनों को बढ़ावा देना**  
महुआ बीनने, शिकार और खेती के लिए जंगल जलाने के बजाय स्थानीय लोगों को वैकल्पिक साधनों के प्रति जागरूक करना होगा। इससे उनकी आय के साधन भी सुरक्षित रहेंगे और जंगलों की रक्षा भी होगी।  

जिले में कोया भूमकाल क्रांति सेना के जैसे संस्था और कुछ लोग सक्रिय है जो लगातार जंगलों की आग बुझा रहे हैं।
मोहला मानपुर क्षेत्र में जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए किए जाने वाले आंदोलन और धरना-प्रदर्शन तभी सार्थक होंगे जब स्थानीय लोग अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। जंगलों में आग लगाने की घटनाओं को रोकने के लिए जागरूकता जरूरी है। यदि समय रहते इस पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो आने वाले वर्षों में यह क्षेत्र न केवल पर्यावरणीय आपदाओं का सामना करेगा, बल्कि उसकी पारंपरिक पहचान भी संकट में पड़ जाएगी। जल, जंगल, जमीन की रक्षा केवल नारों और ज्ञापनों तक सीमित न रहकर जमीनी स्तर पर भी नजर आनी चाहिए, तभी इस क्षेत्र का सही मायनों में विकास हो सकेगा।

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